Wednesday, August 22, 2007

हाईकु

(मन में उठते हैं ढेरों ख्याल, उमड़ घुमड़ कर, इस बार हाइकु बन गए)


(1)
माटी समेटे
सागर की लहरें
सौंधी खुशबू ।

(2)
चाँदनी रात
नीम की छाँह तले
जलती आग ।

(3)
गरजे मेघ
भीग गया अंतर्मन
हवा है नम ।

(4)
उठा गगरी
थाम ले ये सागर
मेघ चंचल ।


8 comments:

अनूप शुक्ल said...

बढ़िया हैं जी। बधाई!

मीनाक्षी said...

प्रकृति से प्रेम और प्रेम में विरोधाभास का सुन्दर रूप,
अति उत्तम

arbuda said...

शुक्रिया अनूप जी और मीनाक्षी जी, आपने रचना पढ़ी तथा सराही. आभार.

Dharni said...

अच्छे हैं!

हरिराम said...

गागर में सागर!

खुश said...

बहुत बढ़िया जी. बहुत बढ़िया लिखा है। सभी कविताएं जबरदस्त हैं।

रंजू भाटिया said...

चाँदनी रात
नीम की छाँह तले
जलती आग ।

बहुत सुंदर

Anonymous said...

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