Sunday, November 09, 2008

कसक


अपनी अतिव्यस्त सी होती हुई दिनचर्या में दिन ढलने के साथ साथ एक कसक भी पनपने लग रही थी। कलम कहीं आराम की आदि न बन जाये और कसक में कोशिश करने की आदत न रहे उससे पहले आपके साथ यह कविता बाँट लेती हूँ-





एक लम्हा चुरा लूँ
टिक टिक करती
घड़ी की सुइयों से.
संभाल लूँ
सूखे फूलों की तरह
किताब में...

ठंडी हवा और
पत्तों की सरसराहट में
चिड़ियों की अठखेलियाँ
सहेज लूँ...

आसमान से आती
सुलझी, सुनहरी किरणों को
आँखों में भर लूँ...
ताज़गी और रौशनी
भोर की।
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