Sunday, December 30, 2007

सराहना




देखा है मैंने
खुले आकाश के,
बांह पसारे
विस्तार को।
नदिया के रुख़ को
मचलते खेलते
बहने को।
हर उषा से
आशा की किरण को
महसूस किया है।
सलाखों के पीछे से
देख-सह-चुप रह कर
जिया है मैंने
हर दिन
हर पल को
और सराहा है उसे
जिसने मुझे यह सब
देखने दिया
चाहे सलाखों के पीछे से ही ।

Sunday, December 09, 2007

जीवन चक्र


धूप छाँव का आना जाना
भोर साँझ का खेल दिखाना
जीवन चक्र पर फिसले जाना
कहाँ हो अपना ठौर ठिकाना.

समय से हर पल ‘रेस’ लगाना
दिन भर तन को खूब तपाना
साँझ ढले पर पानी दाना
चल रे माझी घर है जाना.

Sunday, October 28, 2007

करवाचौथ पर कुछ हाईकु



(1)
आया भाग्य से
सुहागनों का दिन
करवाचौथ।



(2)
रूप निखरे
सोलह श्रृंगार सा
सुहागन का।

(3)
माँग सिन्दूरी
कलाई भर चूड़ी
चाँद पूजती।




(4)
नारी जीवन
ममता और प्रेम
सौभाग्यशाली।

(5)
खुशियों भरा
जीवन हो सबका
यही प्रार्थना।
(सुबह ‘सरगी’ करते हुए कुछ हाईकु बने, जिन्हें यहाँ सभी के साथ बाँट रही हूँ।)

सीख - रविन्द्र नाथ टैगोर की कविता से

आइ. सी. यू. में घुसते ही बायें हाथ पर एक नोटिस बोर्ड था। वैसे तो उस बोर्ड पर आइ. सी. यू. के पेशेंट्स के नाम, उनके डाक्टर के नाम आदि लिखे रहते थे पर कभी कभी वहाँ ड्यूटी पर बैठा डाक्टर किसी किताब में से, जिसे वो खाली समय में पढ़ता था, चंद लाईने जो उसे पसंद आतीं, मार्कर से लिस्ट के पास ही लिख देता था। मेरा दिन में बहुत बार आइ। सी. यू. में जाना होता था क्योंकि मम्मी वहाँ 214 नम्बर में एडमिट थीं। उनकी हालत बिगड़ती ही जा रही थी, आइ. सी. यू. में आने पर वो वेन्टीलेटर पर ही रहीं। जहाँ बाहर जूते उतारते थे उसके और नोटिस बोर्ड के बीच एक काँच का दरवाज़ा था तो जूते उतारते और पहनते समय नोटिस बोर्ड पर नज़र पड़ ही जाती थी। इस तरह किश्तों में वहाँ लिखा आँखों से फिर जाता था। उस दिन वहाँ रविन्द्र नाथ टैगोर की लिखी कविता की कुछ लाईनें नज़र आईं,

मेरा कार्य संभालेगा अब कौन
लगे पूछने साहब रवि
सुनकर सब जग रहा निरुत्तर मौन
ज्यों कोई निश्चल छवि
माटी का था दीपक एक
बोला यूँ झुककर-
- अपनी क्षमता भर प्रयास करूँगा प्रभुवर-


मम्मी उस रात को हम सभी को छोड़ गईं।
कुछ दिनों पहले किसी बैग से उसी अस्पताल की एक परची झांकती हुई दिखी, निकाला तो उसके पीछे वही लाईनें, ...एक बार फिर नज़र से फिर गईं, जिसे मेरे पति ने तब नोट कर लिया था। पढ़ कर सब याद आ गया। माँ की याद एक रिक्तता दे जाती है पर मैं अपने आप को माटी का दीपक समझने लगी हूँ...अपनी क्षमता भर प्रयास करने का वचन जो लिया है अब।

Saturday, October 27, 2007

उम्मीदें

सन्डे को आपकी छुट्टी है क्या? मुझे दिक्कत होगी अकेले बच्चों के साथ जब रिपेयरिंग का काम करने के लिए लेबर आ जाएगी! याद है पिछले हफ्ते ही तो मकान मालिक ने बोला था, ''सन्डे को आपका काम शुरू हो जाएगा।'' रेवा ने विनीत को याद दिलाया।
''उन्होने कहा था पर ऐसा नहीं होता रेवा। बोलने और होने में बहुत टाइम लगता है। दो तीन महीने तो लग ही जाएँगे। याद है मकान मलिक से बात किये मुझे डेढ़ महीना हो चुका था तब वो पिछले हफ्ते देख कर गये थे, तुम आराम से रहो।'' विनीत थोड़ा गुस्से में बोला।
रेवा भी सोचने लगी कि सही तो कह रहा है विनीत, ऐसा ही होता है। किसे फुरसत है दूसरे का काम याद रखने की, फिर किराया तो मिल रहा है उन्हें। मकानमालिक को क्या चिंता। पिछले किराएदारों ने घर की हालत बहुत खराब कर दी थी। दीवार, दरवाजे, नल, गीज़र सभी को रिपेयरिंग चाहिए थी। यहाँ तक कि फर्श भी इतना गंदा था कि चार घंटे मेड को बुलवा कर साफ करवाया था हमने।
आज सफाई करते हुए रेवा मन ही मन सोच रही थी अभी तीन ही दिन हुए हैं और इन तीन दिनों में सारा काम हो गया। दीवारें, दरवाजे, नल, गीज़र सभी ठीक कर गए लेबर और ज्यादा परेशानी भी नहीं हुई। ''हमने नाहक ही मकानमालिक की गलत धारणा अपने मन में बना ली। शायद सभी एक जैसे नहीं होते, किसी के बारे में पहले से अनुमान लगाना बाद में अक्सर गलत साबित हो जाता है और सच ही तो है कि उम्मीदें छोड़ दो तभी वो पूरी होती हैं।''
आज विनीत जब आफिस से आएंगे तो घर नया सा मिलेगा।

Tuesday, October 23, 2007

लम्हे कुछ हल्के फुल्के


हम फुरसत के पल ढूँढते रहते हैं, कभी अचानक से हल्के फुल्के लम्हे टपक कर दामन में आ गिरते हैं कि संभाल लिये तो अपने, नहीं तो इंतज़ार अगले मौके का।
पिछले कुछ महीने बहुत व्यस्त बीते। काम भी जैसे इंतज़ार में रहते हैं जब थोड़ा फुरसत का सोचो तभी झांकने लगते हैं...और फिर ये बात भी सही है कि काम ख़त्म करके ही फुरसत का मज़ा लिया जा सकता है। वैसे मैंने अनुभव किया है कि हम काम छोड़ कर भले ही बैठ जायेंगे पर काम कभी हमें नहीं छोड़ते। खैर, आज सुबह पतिदेव के आफिस चले जाने के बाद घर गृहस्थी के बहुत से काम हमेशा की तरह मेरा इंतज़ार कर रहे थे, काम कहाँ से शुरू करूँ अभी इसी उहापोह में थी कि फोन बज उठा। मेरी प्रिय सहेली मीनाक्षी लाइन पर थी। फोन उठाते ही फटाक से बोली क्या कर रही हो, ''बस चेंज करो और बाहर आ जाओ, मैं गाड़ी में तुम्हारा इंतज़ार कर रही हूँ।'' फिर आवाज़ की स्पीड धीमी कर बोली, ''अरे बाबा, घबराओ नहीं, काफी पीने चलते हैं बीच पर।'' मेरा मन... मन तो मन ही है... चंचल है। अब और क्या उपमा दूँ इतना बता सकती हूँ कि मीनाक्षी ने दो मिनट का समय दिया था पर मैं डेढ़ मिनट में ही फुर्ती से तैयार होकर गाड़ी में विराज गई। अचानक आज फुरसत का लम्हा मेरे दामन में गिर रहा था उसे संभालना जो था। शापिंग के लिये तो हम अक्सर निकल ही जाते हैं पर तफरीह के लिये कभी मौका हाथ नहीं लगा था। इसलिये उत्साह हम दोनों में ही था। एफ एम पर गाने सुनते सुनते बाहर का ट्राफिक को एन्जाय करते हुए हम बीच पार्क पहुँच गये। समुद्र की शांत लहरें, सूरज की सुनहरी किरणें और पार्क की हरियाली। सभी सुरम्य लग रहे थे। हम अचानक से ही निकल आए थे वरना साथ में बिस्किट या हल्का सामान ही रख लेते पर कोई बात नहीं, वहीं केफेटेरिया से काफी और केक लेकर हम बेंच पर बैठ गए। एन्जाय करने के लिये ढेर सी प्लानिंग होती है पर बिना प्लानिंग के एन्जाय करने का स्वाद बड़ा मज़ेदार होता है। बच्चों के अन्दर ही बचपना नहीं होता महसूस करें तो हमारे अन्दर बचपना हमेशा ज़िंदा रहता है। उसे जी लेना आनन्द देता है। फुरसत के यही कुछ अनप्लांड पल चार्ज करने के लिये अच्छे होते हैं।

Monday, October 22, 2007

जिंदगी

रिश्तों में उलझी
रिश्तों में ही सिमटी
जिंदगी
उम्र दर उम्र
गहराती जिंदगी
शरीर के साथ
रिश्तों की डोरी पकड़े
इठलाती जिंदगी
शरीर से ऊपर
यादों में बसती
इन्हीं रिश्तों से
खिलती भी है जिंदगी।

नो होप आफ एनी एक्शन


देखो मैडम समझा लो अपने हस्बैंड को। मामले को यही सुल्टा लो इतना अकड़ना ठीक नहीं।आप लोग हमें नहीं जानते यहाँ थाने में तो पैसे देने ही पड़ेंगे फिर जो हम कोर्ट के चक्कर आपको लगवाएंगे वो अलग। आप ही को परेशानी होगी, सोच लो। हमारे तो बहुत सोर्स हैं और मत भूलो कि ये दिल्ली है दिल्ली।
आप क्या कहना चाहते हो मिस्टर बैनर्जी। यही कि हम आपसे दब जाएं मैं ऐसा नहीं करूंगी क्योंकि मैं जानती हूँ कि ये सही हैं और फिर गलती भी तो आपकी थी हमारी गाड़ी तो रोड पर ही थी आप ही ने साइड में से आकर रोड ज्वाइन करनी चाही और हिट किया हमारी गाड़ी को। अब हमारी गाड़ी बड़ी है इसलिए सिर्फ हल्का सा डेंट आया और आपकी गाड़ी का बम्पर गिर गया। इसमें हमारा क्या फाल्ट। फिर प्रगति इन्स्पैक्टर की तरफ देख कर बोलने लगी, सर हमारे पास लाइसैंस, इंश्योरेंस के पेपर सभी कुछ तो है,। इनके पास तो ये सब भी नहीं है। आप मि. बैनर्जी के अगेन्स्ट केस लिखिए।''
सारी मैडम केस तो आपके हस्बैंड के अगेन्स्ट ही बनेगा। सभी कुछ हमारे हाथ में है, आप बात मत बढ़ाइये। अगर आप ऐसे नहीं मानते तो हम शैलेष को लाकअप में रख लेते हैं कल सुबह ज़मानत पर छुड़वा लेना और फिर तैयार हो जाना कोर्ट के चक्कर काटने के लिये, अब तो समझ आ गई होगी मेडम आपको।'' इन्स्पैक्टर ने बड़े ही अजीब लहजे़ में अपनी बात कह डाली पर जवाब में प्रगति चुप ही रही। उसकी आँखों से आक्रोश नहीं छिप रहा था और इस पर भी जो हँसी इन्स्पैक्टर और बैनर्जी के चेहरे पर थी वह बड़ी ही गंदी थी। प्रगति मुड़ कर शैलेष के पास चली गयी जो वहीं चेयर पर बड़ा ही परेशान बैठा था ।
''प्रगति, इन्सान कितना गिर जाता है, यहाँ थाने में आकर पता चला। सुबह से हम एम्स में डाक्टर से मिलने के लिए भागदौड़ कर रहे थे। शाम के आठ बजे ये टक्कर हुई और अब बारह बज रहे हैं। कोई किसी की परेशानी नहीं समझता यहाँ। पुलिस तो सच का ही साथ देती है न, फिर यहाँ पुलिस अन्याय का साथ क्यों दे रही है।'' शैलेष ने निराशापूर्ण होकर कहा। पर तब तक प्रगति को इन्स्पैक्टर की बात समझ आ चुकी थी कि बेकार में न्याय की उम्मीद नहीं करनी चाहिए, माया का रंग उन लोगों पर चढ़ चुका है जो समाज में कानून को संभालते हैं। इसलिये यही समझाने की कोशिश में वो बोली, ''शैलेष परेशान मत होओ। ऐसा करो यहीं मामला ख़त्म करो। यहाँ कोई नहीं सुनेगा हमारी। हम ही भूल जाएंगे सभी कुछ।'' प्रगति की बात पर शैलेष उठा और इन्स्पैक्टर को मामला ख़त्म करने की अपनी इच्छा बताई। इन्स्पैक्टर ने दो हज़ार रुपये की माँग की और शैलेष को साइन करने के लिये कहा, शैलेष ने साथ में यह भी लिख डाला ''नो होप आफ एनी एक्शन।'' और लौट आया प्रगति के पास। इन्स्पैक्टर को यह लाइन समझ आई या नहीं, उसका ज़मीर जागा या नहीं, पता नहीं। शैलेष ने अपनी गाड़ी निकाली और धीरे धीरे फिर से दिल्ली की सड़कों पर चलाने का कान्फिडेंस लाने लगा।

Monday, August 27, 2007

--संवाद--


किनारे पड़ी
रेत को छूने
उछलती लहरें
मतवाली होकर
दूर से ही
हवा में
शोर मचाती हैं ।
किनारे पहुँच कर
थोड़ा थम जातीं हैं ।
और लौटते हुए
रेत के कानों में
हल्के से
कह जाती हैं
यहीं रुकना
मैं फिर से आती हूँ ।

Wednesday, August 22, 2007

हाईकु

(मन में उठते हैं ढेरों ख्याल, उमड़ घुमड़ कर, इस बार हाइकु बन गए)


(1)
माटी समेटे
सागर की लहरें
सौंधी खुशबू ।

(2)
चाँदनी रात
नीम की छाँह तले
जलती आग ।

(3)
गरजे मेघ
भीग गया अंतर्मन
हवा है नम ।

(4)
उठा गगरी
थाम ले ये सागर
मेघ चंचल ।


Thursday, August 09, 2007

बरसात

मुम्बई की बारिश को सावन के सुहाने मौसम में याद कर लिया था, कुछ मैं भीग गई तो कुछ यादें-


पूजा सोफे पर बैठी हुई थी। मुम्बई की ऊंची इमारतों को अपने पांचवे माले से ही निहार रही थी। आसमान में घने काले मेघ घिर आए थे। घर के भीतर भी ठंडक का अहसास बुदबुदा रहा था। इतने में कामवाली ने आवाज़ लागाई "दीदी, काम हो गया, मैं जा रही हूं। हां, कल बारिश होती रही तो मैं नहीं आऊंगी, यहां मालूम ऐसा ही होता है, बारिश एक बार शुरू तो कब खत्म होगी कौन जाने।"
पूजा दरवाजा बंद करके फिर से सोफे पर आकर धम्म से बैठ गई और सोचने लगी "अरे बहाना मारती है बारिश का।"
खैर अभी पांच मिनट ही बीते कि मेघ झमाझम बरसने लगे। बारह बजने को थे पूजा सोचने लगी इस बारिश में स्वाद ही अलग होता है बच्चे आते ही होंगे आज पकोड़े का मजा लिया जाये। पांचवे माले से नीचे झांका तो सड़क पर बहता पानी देख पूजा को घबराहट शुरु होने लगी। बारिश इतनी तेज़ थी कि सामने वाली बिल्डिंग भी नज़र नहीं आ रही थी। ऐसे में ड्राइवर बस कैसे चला रहा होगा? नीचे सड़क अब तक सूनी हो चुकी थी। आधे घंटे में ही बारिश अपने पूरे जो़र पर थी। बच्चों की चिंता बढ़ने लग गई।
पूजा अपना मोबाइल हाथ में ले लिफ्ट से नीचे उतरी, नीचे कोई आटो जब नज़र नहीं आया तो आटो वालों को कोसते हुए पैदल ही बस स्टाप की ओर बढ़ने लगी। तेज़ हवाओं ने मुश्किल बढ़ा दी। बादल टूट के बरस रहे थे। घबराहट के मारे जान सूखी जा रही थी। बच्चों की फिक्र उसे बेचैन कर रही थी एक घंटा ऊपर हो चुका था और मंजिल अभी भी दूर ही थी। पानी घुटनों तक सड़क पर बह रहा था। ठंडी ठंडी हवा शरीर में कम्पन पैदा कर रही थी पर मां की आंखो में बच्चों तक पहुंचने की लालसा सभी हालात से लड़ने की शक्ति भी दे रही थी। पानी के तेज़ बहाव के साथ चलते चलते पूजा के पैरों से अचानक चप्पल भी निकल गई। मोबाइल पर सिग्नल चैक करते करते तो अब वो हताश होने लगी। भयंकर पानी अपने आसपास देख कर भी पूजा प्यासी थी। सुनसान सड़क पर सभी को कोसती हुई वो बढ़ती रही। अब बस ज्यादा नहीं, थोड़ा ही और चलना था। सवा बारह बजे बस रोज़ आ जाती है, अब दो बज रहे थे।
ठाकुर विलेज से वेस्टर्न एक्सप्रेस हाइवे पर आने में ज्यादा समय नहीं लगता पर आज पूरे दो घंटे लग गये। वहां का मंज़र देख हैरान हो गई, ढाई घंटे में ही बारिश ने सब अस्त व्यस्त कर दिया था। हाइवे पर पहुंच कर पूजा बस ढूंढने लग गई, इतनी बारिश में ऊपर मुंह उठा कर आंखे खोलना भी सम्भव नहीं लग रहा था। बच्चे कहां होंगे? स्कूल वाले भी कैसे है? इत्तला भी नहीं की। ओफ् इस अन्जान शहर में मदद किससे लूं, यहां कौन अपना है? गुस्से और घबराहट ने पूजा के दिमाग़ को सुन्न कर दिया। इतने में ही सामने देखा तो एक आदमी पूजा को इशारे से बुलाने लगा। खाली सड़क पर घुटनों से ऊपर तक पानी था। पूजा पूरी तरह से पानी में भीगी हुई थी। ऐसे में उस आदमी पर गुस्से भरी दृष्टि डाल कर पूजा ने मुंह फेर लिया। पूजा बस की राह देख रही थी कि वह आदमी करीब आ गया, आक्रोश में पूजा बोलने ही लगी कि आदमी बोल पड़ा "बहन जी, आप स्कूल बस देख रही हैं क्या? कुछ स्कूल की बसें हमारे टावर के नीचे खड़ी हैं। आप चल कर देख लीजिये अगर उसमें आपके बच्चे हैं। जैसे जान में जान आने लगी हो, पूजा उत्साहित सी चल पड़ी, अपने आपको बहाव में सम्भालती हुई। टावर के नीचे बच्चों की बस देख कर उसकी आंखों से आंसू निकल पड़े। बस में देखा तो बच्चे बिल्कुल सुरक्षित थे। टावर में रहने वाले लोगों ने वहां खड़ी स्कूल की तीन बसों में बिस्कुट, चिप्स आदि वितरित किये थे। अन्जान आदमी ने चाय मंगवाई और पूजा को देते हुए बोला "आप यहां बैठ कर चाय पीजिये, मैं आपको घर तक छोड़ आऊंगा। फिर वही आदमी कंधे पर बच्चों को बैठा कर घर तक छोड़ गया। पूजा भावविभोर हो गई। इस अन्जान शहर में लोग कितने दयालु हैं नाहक ही पूरे रास्ते वह इस महानगर को कोसती रही, पर ईश्वर की दया है कि इन्सानियत अभी बाकी है।

Sunday, July 29, 2007

सहलाती रही हवा

सहलाती रही हवा
रात भर,
रेत पर पड़ी सलवटें ।
भोर की लालिमा लिये,
दिन चढ़ा
सुनहरा रेगिस्तान जाग उठा ।
ठंडी हवा फिर चली
अतीत की यादें मिटा
आज को संवारती
रेत पर फेरती उंगलियां,
अद्भुद है यह दिन ।
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