Sunday, December 30, 2007

सराहना




देखा है मैंने
खुले आकाश के,
बांह पसारे
विस्तार को।
नदिया के रुख़ को
मचलते खेलते
बहने को।
हर उषा से
आशा की किरण को
महसूस किया है।
सलाखों के पीछे से
देख-सह-चुप रह कर
जिया है मैंने
हर दिन
हर पल को
और सराहा है उसे
जिसने मुझे यह सब
देखने दिया
चाहे सलाखों के पीछे से ही ।

Sunday, December 09, 2007

जीवन चक्र


धूप छाँव का आना जाना
भोर साँझ का खेल दिखाना
जीवन चक्र पर फिसले जाना
कहाँ हो अपना ठौर ठिकाना.

समय से हर पल ‘रेस’ लगाना
दिन भर तन को खूब तपाना
साँझ ढले पर पानी दाना
चल रे माझी घर है जाना.
Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...