मुम्बई की बारिश को सावन के सुहाने मौसम में याद कर लिया था, कुछ मैं भीग गई तो कुछ यादें-
पूजा सोफे पर बैठी हुई थी। मुम्बई की ऊंची इमारतों को अपने पांचवे माले से ही निहार रही थी। आसमान में घने काले मेघ घिर आए थे। घर के भीतर भी ठंडक का अहसास बुदबुदा रहा था। इतने में कामवाली ने आवाज़ लागाई "दीदी, काम हो गया, मैं जा रही हूं। हां, कल बारिश होती रही तो मैं नहीं आऊंगी, यहां मालूम ऐसा ही होता है, बारिश एक बार शुरू तो कब खत्म होगी कौन जाने।"
पूजा दरवाजा बंद करके फिर से सोफे पर आकर धम्म से बैठ गई और सोचने लगी "अरे बहाना मारती है बारिश का।"
खैर अभी पांच मिनट ही बीते कि मेघ झमाझम बरसने लगे। बारह बजने को थे पूजा सोचने लगी इस बारिश में स्वाद ही अलग होता है बच्चे आते ही होंगे आज पकोड़े का मजा लिया जाये। पांचवे माले से नीचे झांका तो सड़क पर बहता पानी देख पूजा को घबराहट शुरु होने लगी। बारिश इतनी तेज़ थी कि सामने वाली बिल्डिंग भी नज़र नहीं आ रही थी। ऐसे में ड्राइवर बस कैसे चला रहा होगा? नीचे सड़क अब तक सूनी हो चुकी थी। आधे घंटे में ही बारिश अपने पूरे जो़र पर थी। बच्चों की चिंता बढ़ने लग गई।
पूजा अपना मोबाइल हाथ में ले लिफ्ट से नीचे उतरी, नीचे कोई आटो जब नज़र नहीं आया तो आटो वालों को कोसते हुए पैदल ही बस स्टाप की ओर बढ़ने लगी। तेज़ हवाओं ने मुश्किल बढ़ा दी। बादल टूट के बरस रहे थे। घबराहट के मारे जान सूखी जा रही थी। बच्चों की फिक्र उसे बेचैन कर रही थी एक घंटा ऊपर हो चुका था और मंजिल अभी भी दूर ही थी। पानी घुटनों तक सड़क पर बह रहा था। ठंडी ठंडी हवा शरीर में कम्पन पैदा कर रही थी पर मां की आंखो में बच्चों तक पहुंचने की लालसा सभी हालात से लड़ने की शक्ति भी दे रही थी। पानी के तेज़ बहाव के साथ चलते चलते पूजा के पैरों से अचानक चप्पल भी निकल गई। मोबाइल पर सिग्नल चैक करते करते तो अब वो हताश होने लगी। भयंकर पानी अपने आसपास देख कर भी पूजा प्यासी थी। सुनसान सड़क पर सभी को कोसती हुई वो बढ़ती रही। अब बस ज्यादा नहीं, थोड़ा ही और चलना था। सवा बारह बजे बस रोज़ आ जाती है, अब दो बज रहे थे।
ठाकुर विलेज से वेस्टर्न एक्सप्रेस हाइवे पर आने में ज्यादा समय नहीं लगता पर आज पूरे दो घंटे लग गये। वहां का मंज़र देख हैरान हो गई, ढाई घंटे में ही बारिश ने सब अस्त व्यस्त कर दिया था। हाइवे पर पहुंच कर पूजा बस ढूंढने लग गई, इतनी बारिश में ऊपर मुंह उठा कर आंखे खोलना भी सम्भव नहीं लग रहा था। बच्चे कहां होंगे? स्कूल वाले भी कैसे है? इत्तला भी नहीं की। ओफ् इस अन्जान शहर में मदद किससे लूं, यहां कौन अपना है? गुस्से और घबराहट ने पूजा के दिमाग़ को सुन्न कर दिया। इतने में ही सामने देखा तो एक आदमी पूजा को इशारे से बुलाने लगा। खाली सड़क पर घुटनों से ऊपर तक पानी था। पूजा पूरी तरह से पानी में भीगी हुई थी। ऐसे में उस आदमी पर गुस्से भरी दृष्टि डाल कर पूजा ने मुंह फेर लिया। पूजा बस की राह देख रही थी कि वह आदमी करीब आ गया, आक्रोश में पूजा बोलने ही लगी कि आदमी बोल पड़ा "बहन जी, आप स्कूल बस देख रही हैं क्या? कुछ स्कूल की बसें हमारे टावर के नीचे खड़ी हैं। आप चल कर देख लीजिये अगर उसमें आपके बच्चे हैं। जैसे जान में जान आने लगी हो, पूजा उत्साहित सी चल पड़ी, अपने आपको बहाव में सम्भालती हुई। टावर के नीचे बच्चों की बस देख कर उसकी आंखों से आंसू निकल पड़े। बस में देखा तो बच्चे बिल्कुल सुरक्षित थे। टावर में रहने वाले लोगों ने वहां खड़ी स्कूल की तीन बसों में बिस्कुट, चिप्स आदि वितरित किये थे। अन्जान आदमी ने चाय मंगवाई और पूजा को देते हुए बोला "आप यहां बैठ कर चाय पीजिये, मैं आपको घर तक छोड़ आऊंगा। फिर वही आदमी कंधे पर बच्चों को बैठा कर घर तक छोड़ गया। पूजा भावविभोर हो गई। इस अन्जान शहर में लोग कितने दयालु हैं नाहक ही पूरे रास्ते वह इस महानगर को कोसती रही, पर ईश्वर की दया है कि इन्सानियत अभी बाकी है।
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