Tuesday, October 26, 2010

मृत्युँजय


मन त्यौहारों की उमंग में रमा हुआ है। रामलीला, दशहरा, दीवाली फिर गोवर्धन पूजा। द्वापर और त्रेता युग दोनों का ही संबंध हो जाता है इस माह से। घर में सफाई करते हुए शिवाजी सावंत का लिखा उपन्यास 'मृत्युँजय' हाथ लग गया है। कुछ सालों पहले जब इसे पढ़ना शुरू किया था तब भी एक अलग आकर्षण सा महसूस किया था। पूरा उपन्यास बिना रुकावट के पढ़ डाला था। २३-२४ साल की आयु में अपना पहला उपन्यास इतने गम्भीर पात्र को लेकर लिखने वाले के दिल-दिमाग पर दानवीर कर्ण और महाभारत काल किस नशे जैसा रहा होगा कि उस नशे के चलते उन्होने अपनी नौकरी की भी परवाह नहीं की। नशा ऐसा कि उसका असर आज भी पढ़ने वाले को महसूस हो जाता है। भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा प्रकाशित यह उपन्यास इतना लोकप्रिय हुआ कि चार-पाँच वर्षों में ही इसके चार संस्करण तथा पचास हज़ार प्रतियाँ प्रकाशित हो गईं। जब मैंने खरीदा था तब तक इसके तीस संस्करण प्रकाशित हो चुके थे। कोई दैवीय शक्ति जैसे इस उपन्यास को उनसे लिखवाती रही। और शिवाजी के शब्दों में 'यह उपन्यास मेरा नहीं अब पाठकों का हो चुका है।'

आज दिल चाह रहा है कि उन तरंगों को एक बार फिर महसूस करूँ। ये भाव इतनी तीव्रता से उठे कि यहाँ शब्द बन गए। आपने अगर नहीं पढ़ा है तो एक बार ज़रूर पढ़ियेगा।

Wednesday, October 20, 2010

यादें


कई रंग रंगे
कई लिबास ओढ़े

यादें मिलती हैं
हवा के स्पर्श
और खुशबु के संग
संगीत में घुली हुई
उम्मीदों से भरी हुई।
पल- पल आतीं
पल-पल जातीं

हर पल बन जाती हैं
गुज़रे पल की यादें।

Sunday, May 09, 2010

कुछ शाइरी माँ के नाम

यहाँ बाहरेन में इत्तफाक़ से हमारे एक पुराने परिचित मिल गए। कुछ ही दिन पहले उन्होंने अपने पिताजी डा. कन्हैयालाल राजपुरोहित की लिखी किताब 'खुशबू का सफर' दी। 'खुशबू का सफर' में दोहों और शाइरी का संकलन है। मातृ दिवस पर बहुत कुछ पढ़ने को मिला, दिल भावुक भी हो गया। माँ की कमी बहुत बार बहुत खलती है पर दिल बेबस हो जाता है। अपने बच्चों को देखती हूँ तो लगता है कि क्या वही प्यार इनके दिल में भी है जो मेरे दिल में मेरी माँ के लिए है। खैर, दिल चाहा इसलिए 'खुशबू का सफर' से माँ के लिए कुछ शेर मैं यहाँ आपके साथ शेयर कर रही हूँ-



मैं रोया परदेस में भीगा माँ का प्यार
दुख ने दुख से बात की बिन चिट्ठी बिन तार
-निदा फ़ज़्ली

इस तरह मेरे गुनाहों को धो देती है
माँ बहुत गुस्से में होती है तो रो देती है

ये ऐसा कर्ज है जो मैं अदा कर ही नहीं सकता
मैं जब तक घर न लौटूँ मेरी माँ सज्दे में रहती है
-मुनव्वर राना

ऐ माँ तेरे चेहरे की झुर्रियों की क़सम
हर इक लकीर में जन्नत नज़र आती है
-अनवर ग़ाज़ी

हादसों से मुझे जिस शै ने बचाया होगा
वह मेरी माँ की दुआओं का साया होगा
-शम्स तबरेज़ी

घास में खेलता बच्चा पास बैठी माँ मुस्कुराती है
मुझे हैरत है क्यों दुनिया काबा-ओ-सोमनाथ जाती है
-अज्ञात


Thursday, May 06, 2010

किरणें रवि की ...




सूरज की लाली,
सिमटी और बदली

रंगों की चादर
आकाश में बिखरी

दिन चढ़ता रूप बदलता,
भाग रही धूप बावरी

परछाइयों पर फिर भी
खोज रहीं कुछ किरणें रवि की ...

Tuesday, April 27, 2010

"द ग्रेट पोइट्री रीडिंग डे" या " मेरी वापिसी"

सुबह रेडियो पर सुना कि आज "द ग्रेट पोइट्री रीडिंग डे" है। और मेरे लिए वापिसी का एक अच्छा मुहुर्त।
बहुत दिनों से सोच रही थी कि ब्लागजगत पर लिखने के अभ्यास में एक अंतराल आ रहा है। अंतराल की परिभाषाएँ हर एक के लिए अलग-अलग होती हैं पर निश्चित रूप से एक साल का अंतराल लंबा होता है। इस बीच बहुत कुछ पढ़ा, कुछ और जगह लिखा भी...पर स्लीपींग ब्लागर की श्रेणी में आने के बाद यहाँ से एक अच्छी स्लीप (ब्रेक) की ज़रूरत को मैंने नज़रअंदाज नहीं किया। वैसे ब्रेक के बाद तरोताज़ा होकर लौटने का आनन्द ही अलग है। लौटना कब और कैसे होगा, दिल इसी असमंजस में था पर देखिये ना! कभी-कभी संयोग भी कैसे बन जाता है।
आज "द ग्रेट पोइट्री रीडिंग डे" पर उन सभी कवियों को बार-बार याद कर रही हूँ जिनकी कविताएँ बचपन से पढ़ी हैं, कुछ तो गहरी दिल में उतर गई हैं। हरिवंशराय बच्चन और मैथिलीशरण गुप्त की कविताएँ पढ़ कर उनके प्रति एक सम्मान और प्रेम का रिश्ता दिल में कायम है। मैथिली जी की कविता "दोनों ओर प्रेम पलता है" उस समय मुझे काफी छू गई जब पहली बार पढ़ी थी इस कविता में उन्होनें लक्ष्मण के वन में चले जाने के बाद उर्मिला के दिल में उठ रहे विरह भावों को शब्दों में ढाला है­। जब यह कविता पहली बार पढ़ी तब हैरान रह गई थी यह सोच कर कि इस पहलू के बारे में मैथिली जी ने इतनी गहराई से लिख डाला है जिस पहलू पर शायद किसी की नज़र न जाती। हालांकि उस समय मैं छोटी थी पर दिल में आज भी यह कविता उतना ही गहरा अर्थ समझा जाती है।

हरिवंशराय बच्चन की एक कविता "नीड़ का निर्माण फिर फिर" भी उन कविताओं में से एक है जो मेरी डायरी में नोट की हुई है, ऐसी बहुत सी कविताएँ हैं पर चाहती हूँ कि आज के दिन आपके साथ इस कविता को बाँटू। उम्मीद है कि निर्माण की बात कहती इस कविता के बाद मुझे सहर्ष वापिसी मिल जाएगी...

नीड़ का निर्माण फिर फिर, नेह का आह्वान फिर फिर

यह उठी आंधी की नभ में छा गया सहसा अँधेरा
धुलिधुसर बादलों ने धरती को इस भाँती घेरा
रात सा दिन हो गया फिर रात आई और काली
लग रहा था अब न होगा इस निशा का फिर सवेरा
रात के उत्पात-भय से भीत जन जन भीत कण कण
किन्तु प्राची से उषा की मोहिनी मुस्कान फिर फिर
नीड़ का निर्माण फिर फिर .....

क्रुद्ध नभ के वज्रदंतो में उषा है मुस्कुराती
घोर-गर्जनमय गगन ने कंठ में खग-पंक्ति गाती
एक चिडिया चोंच में तिनका लिए जो जा रही हैं
वह सहज में ही पवन उनचास को नीचा दिखाती
नाश के भय से कभी दबता नहीं निर्माण का सुख
प्रलय की निस्तब्धता में सृष्टि का नवगान फिर फिर
नीड़ का निर्माण फिर फिर....

कवि - हरिवंशराय बच्चन
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