Sunday, November 09, 2008

कसक


अपनी अतिव्यस्त सी होती हुई दिनचर्या में दिन ढलने के साथ साथ एक कसक भी पनपने लग रही थी। कलम कहीं आराम की आदि न बन जाये और कसक में कोशिश करने की आदत न रहे उससे पहले आपके साथ यह कविता बाँट लेती हूँ-





एक लम्हा चुरा लूँ
टिक टिक करती
घड़ी की सुइयों से.
संभाल लूँ
सूखे फूलों की तरह
किताब में...

ठंडी हवा और
पत्तों की सरसराहट में
चिड़ियों की अठखेलियाँ
सहेज लूँ...

आसमान से आती
सुलझी, सुनहरी किरणों को
आँखों में भर लूँ...
ताज़गी और रौशनी
भोर की।

Wednesday, May 28, 2008

ये क्या हुआ?

अपनी गृहस्थी में इस कदर व्यस्त रहने लगी कि ब्लाग पर मौन हो गई। ब्लागजगत तो हमेशा याद आता रहता है परंतु फुरसत के पल अब कीमती हो गए हैं। आपका प्यार पा कर बहुत खुशी होती है। पर मौन से कोई इस तरह जीत जाएगा यह नहीं पता था। पिछले तीन दिन से सोच रही हूँ कि यह पोस्ट लिख भेजूँ, आज समय निकाल ही लिया। 26 की रात को प्रिय बेजी का फोन आया। मौन जीत जाता है उन्होंने सहजता से दोहरा दी, मैने पूछा- पुरानी पोस्ट पढ़ने का समय कहाँ से चुरा लिया, बेजी। बेजी बोलीं पुरानी नहीं ये तो आज की पोस्ट है। मेरा माथा ठनका भई मुझे तो याद नहीं कि मैने अपनी पुरानी कविता फिर से डाली हो। माजरा समझ नहीं आया। उसी समय ब्लागवाणी खोला तो सबसे ज़्यादा पढ़े गए में अपना नाम पाया। देख कर खुशी तो हुई साथ में अचम्भा भी कि ये क्या हुआ। लिंक खोला तो देखा अजी मेरी ही कविता पर मुझसे पहले उड़न तश्तरी पहुँच गई, मीत, कुश का एक खूबसूरत ख्याल, विचारों की ज़मीं, डा. अनुराग, संदीप जी, शोभा जी सभी विराजे हैं। प्रतिक्रियाएँ इतनी अच्छी लगी कि दिल खुश हो गया। कविता को आप सभी ने बहुत सराहा, इससे भी ऊपर आपने मेरी भावनाओं को समझा। समीर जी मुझे भी नहीं पता कि बहुत पुरानी पोस्ट फिर से कैसे। मैं कम लिख पाती हूँ फिर भी आप सभी मुझे याद रखते हैं। पर मेरी समझ में नहीं आया कि ये मौन कैसे टूटा। मेरी 20 जुलाई 2006 की कविता आज अचानक कैसे उभर आई और पुरानी तारीख़ पर कमेंट्स कैसे मिल गये, क्या कहने इस मौन के। खूब दिमाग दौड़ाया पर यह रहस्य नहीं सुलझा। क्या आप लोग बता सकते हैं कि ये क्या हुआ?
किशोर का यह गाना मेरी हालत बयान कर सकता है- आप भी सुनिये और रहस्य सुलझा दीजिये-
http://www.esnips.com/doc/16603360-342d-430f-8b57-471a9c846066/06-Yeh-kya-hua

Wednesday, May 14, 2008

हाईकु (त्रिपदम)


(1)

स्वर्णिम आभा
बिखेरे दिनकर
अतिसुन्दर।




(२)

पेड़ की जड़ें
माटी भीतर सींचे
जीवन डोर।


(३)

छोटा बालक
रंग और कल्पना
चित्र बनाता।

Monday, April 07, 2008

पत्थर में प्रकटे प्राण


रक्त वर्ण कोंपलें
बादलों का स्नेह
हवा का स्पर्श
पत्थर में प्रकटे प्राण
सर्वत्र जीवन
सर्वत्र नियम

जीवन
व्यक्त करता
विकसित होता
पल पल खिलता
नन्हा सा...
निर्दोष सा...

यही, एक भाव है...
या स्वभाव.
या फिर इससे भी परे
एक प्रभाव है-
शब्दों का
स्पर्श का, औ
रूप, रस, गंध का.

Sunday, February 03, 2008

हाईकु (त्रिपदम)

(1)
ढलती साँझ
नीड़ की तलाश में
भटके पंछी।



(2)
नदी का पानी
कल कल झरना
बहते हैं ना.






(3)
रुई के फाहे
बादलों पर छाए
वृक्ष नहाए.







(4)
भोर औ सांझ
करवट बदले
जीवन यही.

Thursday, January 03, 2008

सुकून

बस थोड़ा सा सुकून मिल जाए। दिमाग़ भन्ना जाता है, उफ्फ यह शोर...कितना नोइस पोल्यूशन है यहाँ। पीं पीं होर्न बजता है गाड़ियों का। उसकी आवाज़ कानों पर नहीं हार्ट पर महसूस होती है। दूसरे फ्लोर की बालकोनी में खड़ी हुई चित्रा महानगर में कोई कोना शांति का खोज रही है। गली के छोर पर मिसेज वर्मा रिक्शे वाले से दो रूपये के लिये उलझी हुई हैं। उनके तर्क ऐसे लग रहे हैं जैसे मार्केटिंग में ताज़ा डिप्लोमा कर आईं हों। ओह कितना ज़ोर से बोलती हैं, आज पूरी गली को अपना हुनर दिखा देने की कोशिश में हैं। कोई किसी के बारे में नहीं सोचता, कितना चीखते हैं सभी। नीचे आलू प्याज वाले की आवाज़ ने अचानक ध्यान खींच लिया।
मकान मालकिन चित्रा को बोली -‘चलो उतर कर आलू, प्याज़ खरीद लाएँ।’
चित्रा ने दो किलो आलू, दो किलो प्याज खरीद लिये।
इतने में पीछे से दूसरा सब्जी वाला बोल पड़ा, ‘अरे दीदी, आज खाना क्या बनावेंगी। थोड़ी सब्जी तो ले लो। मटर, शलजम, बैंगन, गाजर और ये मशरूम और पालक बिल्कुल ताज़ा है।’
चित्रा मन ही मन सब्जी वाले की भी अच्छी मार्केटिंग से इम्प्रेस हो गई। दो, चार किलो सब्जी खरीद कर ऊपर जाने लगी कि सीढ़ियों पर मिसेज कपूर ने आँखों को बड़े ही अदब से नचाते हुए पूछा, ‘अरे चित्रा, बड़ी सब्जियाँ खरीदी जा रहीं हैं। रात को पार्टी शार्टी है क्या?’
‘यूँ बार बार एक एक सब्जी के लिये नीचे उतर कर आना मुझे बड़ा थका देता है इसलिये अब हफ्ते भर की सब्जी एक साथ खरीद ली बस।’
चित्रा सोचती रह गई कि कोई कुछ भी खरीदे, कुछ भी खाए, जैसे मर्जी रहे। लोग क्यों ताक झाँक करते हैं। घर से बाहर निकलो तो एक बार तो जरूर नज़र डालेंगे। मन ही मन सोचेंगे कि कहाँ जा रहे हैं। कहीं तो खुलापन हो, कहीं तो सुकून मिले। लोग अपने कौतुहल को शांत करने के लिये दूसरों की ज़िदगी में कितना दख़ल देते हैं। खुशबू से अंदाज़ लगाएँगे कि आज फलाने के घर क्या पका है। और जब उस पर भी क्षुधा शांत न हो तो पूछ भी लेंगे। सवाल पूछते हुए हिचकते भी नहीं... एक बार भी नहीं। कैसी ज़िंदगी जीते हैं लोग यहाँ।
अजी ज़िंदगी क्या, बस जी रहे हैं, साँसे ले रहे हैं और गौसिप का मसाला चाट रहे हैं।
इससे दूसरे व्यक्ति को कितनी परेशानी होती है इतना नहीं समझते लोग?
चित्रा सोचती जा रही थी और अपने आपको टेंशन में डालती जा रही थी।
पर टेंशन से क्या होता है, इसी सब से तो समाज बनता है। हम समाज का हिस्सा हैं तो हमसे लोग सवाल करेंगे ही और हमें जवाब भी देना होगा। सही सही बताना होगा कि घर में क्या पकाया है। पकाया का मतलब तो समझते हैं न, 'गौसिप’।
खैर कहानी आगे बढ़ गई है पर चित्रा तो कभी की कानों पर पिलो सेट कर के सो चुकी है। शायद उसे सुकून यहीं मिल सकता है।
Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...