अपनी अतिव्यस्त सी होती हुई दिनचर्या में दिन ढलने के साथ साथ एक कसक भी पनपने लग रही थी। कलम कहीं आराम की आदि न बन जाये और कसक में कोशिश करने की आदत न रहे उससे पहले आपके साथ यह कविता बाँट लेती हूँ-
एक लम्हा चुरा लूँ
टिक टिक करती
घड़ी की सुइयों से.
संभाल लूँ
सूखे फूलों की तरह
किताब में...
ठंडी हवा और
पत्तों की सरसराहट में
चिड़ियों की अठखेलियाँ
सहेज लूँ...
आसमान से आती
सुलझी, सुनहरी किरणों को
आँखों में भर लूँ...
ताज़गी और रौशनी
भोर की।
सुलझी, सुनहरी किरणों को
आँखों में भर लूँ...
ताज़गी और रौशनी
भोर की।
11 comments:
ठंडी हवा और
पत्तों की सरसराहट में
चिड़ियों की अठखेलियाँ
सहेज लूँ...
आसमान से आती
सुलझी, सुनहरी किरणों को
आँखों में भर लूँ...
ताज़गी और रौशनी
भोर की।
आमीन .......
बहुत दिनों बाद दिखी आप !
बहुत खूब...बहुत दिनो बाद ....ऐसी चोरी करने का मेरा भी जी चाहता है... जो चाहो वही पाओ..यही दुआ है...
बहुत सुन्दर रचना. बधाई.
एक अच्छी,
सहज और
प्रेम में पगी हुई कविता ...बधाई.
बहुत प्रखर अिभव्यिक्त । जीवन की िस्थितयों का यथाथॆ शब्दांकन । अच्छा िलखा है आपने ।
मेरे ब्लाग पर आपका स्वागत है ।
http://www.ashokvichar.blogspot.com
Bahut sunder...
bahut acchi kavita ha , badhai
आप सभी को साधुवाद,
कविता को पसंद किया इसके लिये शुक्रिया। डा. साहब और मीनाक्षी मैं मेरे बहुत दिनों बाद दिखने का कारण तो लिख ही चुकी हूँ...हाँ कोशिश करूँगी कि दिखती रहूँ।
भावप्रवण रचना
इन ताजगी से युक्त कविताओं का स्वागत है।
अखिलेश शुक्ल
http://katha-chakra.blogspot.com
एक लम्हा चुरा लूँ
टिक टिक करती
घड़ी की सुइयों से.
संभाल लूँ
सूखे फूलों की तरह
किताब में...
कसक वहीँ तक उतर जाती है जहाँ से उठती हैं
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