Sunday, November 09, 2008

कसक


अपनी अतिव्यस्त सी होती हुई दिनचर्या में दिन ढलने के साथ साथ एक कसक भी पनपने लग रही थी। कलम कहीं आराम की आदि न बन जाये और कसक में कोशिश करने की आदत न रहे उससे पहले आपके साथ यह कविता बाँट लेती हूँ-





एक लम्हा चुरा लूँ
टिक टिक करती
घड़ी की सुइयों से.
संभाल लूँ
सूखे फूलों की तरह
किताब में...

ठंडी हवा और
पत्तों की सरसराहट में
चिड़ियों की अठखेलियाँ
सहेज लूँ...

आसमान से आती
सुलझी, सुनहरी किरणों को
आँखों में भर लूँ...
ताज़गी और रौशनी
भोर की।

11 comments:

डॉ .अनुराग said...

ठंडी हवा और
पत्तों की सरसराहट में
चिड़ियों की अठखेलियाँ
सहेज लूँ...
आसमान से आती
सुलझी, सुनहरी किरणों को
आँखों में भर लूँ...
ताज़गी और रौशनी
भोर की।




आमीन .......
बहुत दिनों बाद दिखी आप !

मीनाक्षी said...

बहुत खूब...बहुत दिनो बाद ....ऐसी चोरी करने का मेरा भी जी चाहता है... जो चाहो वही पाओ..यही दुआ है...

Udan Tashtari said...

बहुत सुन्दर रचना. बधाई.

cartoonist ABHISHEK said...

एक अच्छी,
सहज और
प्रेम में पगी हुई कविता ...बधाई.

Dr. Ashok Kumar Mishra said...

बहुत प्रखर अिभव्यिक्त । जीवन की िस्थितयों का यथाथॆ शब्दांकन । अच्छा िलखा है आपने ।
मेरे ब्लाग पर आपका स्वागत है ।

http://www.ashokvichar.blogspot.com

INTELIVISTO said...

Bahut sunder...

adil farsi said...

bahut acchi kavita ha , badhai

arbuda said...

आप सभी को साधुवाद,
कविता को पसंद किया इसके लिये शुक्रिया। डा. साहब और मीनाक्षी मैं मेरे बहुत दिनों बाद दिखने का कारण तो लिख ही चुकी हूँ...हाँ कोशिश करूँगी कि दिखती रहूँ।

Divya Narmada said...

भावप्रवण रचना

Akhilesh Shukla said...

इन ताजगी से युक्त कविताओं का स्वागत है।
अखिलेश शुक्ल
http://katha-chakra.blogspot.com

के सी said...

एक लम्हा चुरा लूँ
टिक टिक करती
घड़ी की सुइयों से.
संभाल लूँ
सूखे फूलों की तरह
किताब में...

कसक वहीँ तक उतर जाती है जहाँ से उठती हैं

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