Monday, May 11, 2009

सपना


पलकों के पीछे
चुप चुप के
सपना सलोना।
रात भर
आकार लेता,
न जाने कब कहीं
खो गया।
पलकों में ही घुल गया,
या, रौशनी से डर गया,
बहुत ढूँढा
फिर लगा,
अपनी कहानी
वो जी गया।

30 comments:

mehek said...

bahut khubsurat jazbaat

मीनाक्षी said...

ब्लॉगजगत मे वापिसी पर स्वागत... सपने की कहानी बेहद खूबसूरत लगी...

नवनीत नीरव said...

achchhi avivyakti hai. Mujhe pasand aai.
Navnit Nirav

RAJNISH PARIHAR said...

सच में सपने अक्सर ऐसे ही होते है..जो बीच राह में सुबह होने तक न जाने कहाँ गुम.. हो जाते है..अच्छी रचना..

अनिल कान्त said...

आप बहुत खूबसूरत लिखती हैं ...दिल में उतर गया ...

मेरी कलम - मेरी अभिव्यक्ति

डॉ .अनुराग said...

अरसे बाद......आना हुआ .पर छोटी सी कविता बहुत कुछ कह गयी....

Vinay said...

बहुत ख़ूब

अविनाश वाचस्पति said...

चुप चुप नहीं
छुप छुप
आपके सपनों
की कहानी
चलती रहे
छुक छुक

Anonymous said...

इस सुंदर रचना के लिए बधाई की पात्र हैं.
सच में सपनों की एक अलग ही दुनिया होती है,
सुरमई, चम्पई, मनमोहक, आकर्षक सभी को लुभाती है.

साभार
हमसफ़र यादों का.......

kavi kulwant said...

bahut khoob..

kamal ashique said...

achchi avivakti hai,karti rahain

गौतम राजऋषि said...

नवगीत की पाठशाला में आपका लिखा सुंदर गीत पढ़ कर खिंचा चला आया ब्लौग पर..

आना व्यर्थ नहीं गया

मनमोहक कविता

Anonymous said...

Hi, I hve seen u on D blog last 6 m'th back, well hve read d's 1 nw, u r genius. I always like u r thoughts &.... everything u write.

vijay kumar sappatti said...

bahut der se aapki kavitayen padh raha hoon ..is kavita ne man ko kahin rok sa diya hai .. aap bahut accha likhte hai ...aapki kavitao ki bhaavabhivyakti bahut sundar hai ji ..

पलकों में ही घुल गया,
या, रौशनी से डर गया,

ye pankhtiyan apne aap me kuch kahti hai ...

meri badhai sweekar kare,

dhanyawad.

vijay
pls read my new poem :
http://poemsofvijay.blogspot.com/2009/05/blog-post_18.html

Sanjay Sharma said...

सुंदर रचना

Atmaram Sharma said...

भावों की सुंदर अभिव्यक्ति.

क्या आप गर्भनाल से परिचित हैं? अगर नहीं तो कृपया ईमेल भेजें.

सादर
आत्माराम

विवेक सिंह said...

एक माह हो गया ! कुछ नया आये !

हरकीरत ' हीर' said...

पलकों के पीछे
चुप चुप के
सपना सलोना।
रात भर
आकार लेता,
न जाने कब कहीं
खो गया।
पलकों में ही घुल गया,
या, रौशनी से डर गया,
बहुत ढूँढा
फिर लगा,
अपनी कहानी
वो जी गया।

वाह......चित्र के साथ शब्द जैसे जीवित हो उठे हैं ......!!

राजीव थेपड़ा ( भूतनाथ ) said...

आपका ब्लॉग देखा-पढ़ा-बांचा...और महसूस किया....अब बताऊँ....??बहुत ही अच्छा लिखती हो आप....सच....बाकी बाद में अभी जल्दी में हूँ....!!

प्रकाश गोविंद said...

सपने प्रायः यूँ ही नाज़ुक होते हैं
इन्हे सहेजना ज़रूरी है !

दिलकश अभिव्यक्ति !

शुभकामनाएँ

आज की आवाज

abdul hai said...

Nice post

Naveen Tyagi said...

bahut sundar rachna hai.

crazy devil said...

bahut pyara hai

Unknown said...

bahut hi pyari..aapke jaisi:))

Kunal Mishra said...

bahut sundar.......badhaiyaan.......

विमलेश त्रिपाठी said...

मासूम अहसास जो शब्दों में ढल गए हैं...शुभकामलाएँ..सूं ही लिखती रहें...

संजय भास्‍कर said...

हर शब्‍द में गहराई, बहुत ही बेहतरीन प्रस्‍तुति ।

nilesh mathur said...

वाह! बहुत सुन्दर

Swatantra said...

i have never read a more beautiful poem on dream ever.

Anonymous said...

बहुत सुंदर - लाजवाब - बधाई

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