Monday, October 22, 2007

जिंदगी

रिश्तों में उलझी
रिश्तों में ही सिमटी
जिंदगी
उम्र दर उम्र
गहराती जिंदगी
शरीर के साथ
रिश्तों की डोरी पकड़े
इठलाती जिंदगी
शरीर से ऊपर
यादों में बसती
इन्हीं रिश्तों से
खिलती भी है जिंदगी।

7 comments:

Manoj said...

बढिया. खूब कहा.

Anonymous said...

Very well composed poem....
keep up the good work.
well done :)

अंकुर गुप्ता said...

अच्छी कविता है.

aarsee said...

सही भाव
जिंदगी को तो बहुत सारी चीजें बाँधती है और उनमें एक बंधन रिश्तों का भी है।

singh said...

सुन्दर रचना
विक्रम

डाॅ रामजी गिरि said...

शरीर से ऊपर
यादों में बसती
इन्हीं रिश्तों से
खिलती भी है जिंदगी।
pretty nice lines depicting life n relations...

प्रवीण त्रिवेदी said...

बहुत बढ़िया
कभी कभी लिखी हुई चीज अपील करती है /
और तब आप उस वास्तविकता को महसूस कर सकते हैं /
बहुत बहुत बधाई/

प्रवीण त्रिवेदी "मनीष"
http://primarykamaster.blogspot.com/

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