देखो मैडम समझा लो अपने हस्बैंड को। मामले को यही सुल्टा लो इतना अकड़ना ठीक नहीं।आप लोग हमें नहीं जानते यहाँ थाने में तो पैसे देने ही पड़ेंगे फिर जो हम कोर्ट के चक्कर आपको लगवाएंगे वो अलग। आप ही को परेशानी होगी, सोच लो। हमारे तो बहुत सोर्स हैं और मत भूलो कि ये दिल्ली है दिल्ली।
आप क्या कहना चाहते हो मिस्टर बैनर्जी। यही कि हम आपसे दब जाएं मैं ऐसा नहीं करूंगी क्योंकि मैं जानती हूँ कि ये सही हैं और फिर गलती भी तो आपकी थी हमारी गाड़ी तो रोड पर ही थी आप ही ने साइड में से आकर रोड ज्वाइन करनी चाही और हिट किया हमारी गाड़ी को। अब हमारी गाड़ी बड़ी है इसलिए सिर्फ हल्का सा डेंट आया और आपकी गाड़ी का बम्पर गिर गया। इसमें हमारा क्या फाल्ट। फिर प्रगति इन्स्पैक्टर की तरफ देख कर बोलने लगी, सर हमारे पास लाइसैंस, इंश्योरेंस के पेपर सभी कुछ तो है,। इनके पास तो ये सब भी नहीं है। आप मि. बैनर्जी के अगेन्स्ट केस लिखिए।''
सारी मैडम केस तो आपके हस्बैंड के अगेन्स्ट ही बनेगा। सभी कुछ हमारे हाथ में है, आप बात मत बढ़ाइये। अगर आप ऐसे नहीं मानते तो हम शैलेष को लाकअप में रख लेते हैं कल सुबह ज़मानत पर छुड़वा लेना और फिर तैयार हो जाना कोर्ट के चक्कर काटने के लिये, अब तो समझ आ गई होगी मेडम आपको।'' इन्स्पैक्टर ने बड़े ही अजीब लहजे़ में अपनी बात कह डाली पर जवाब में प्रगति चुप ही रही। उसकी आँखों से आक्रोश नहीं छिप रहा था और इस पर भी जो हँसी इन्स्पैक्टर और बैनर्जी के चेहरे पर थी वह बड़ी ही गंदी थी। प्रगति मुड़ कर शैलेष के पास चली गयी जो वहीं चेयर पर बड़ा ही परेशान बैठा था ।
''प्रगति, इन्सान कितना गिर जाता है, यहाँ थाने में आकर पता चला। सुबह से हम एम्स में डाक्टर से मिलने के लिए भागदौड़ कर रहे थे। शाम के आठ बजे ये टक्कर हुई और अब बारह बज रहे हैं। कोई किसी की परेशानी नहीं समझता यहाँ। पुलिस तो सच का ही साथ देती है न, फिर यहाँ पुलिस अन्याय का साथ क्यों दे रही है।'' शैलेष ने निराशापूर्ण होकर कहा। पर तब तक प्रगति को इन्स्पैक्टर की बात समझ आ चुकी थी कि बेकार में न्याय की उम्मीद नहीं करनी चाहिए, माया का रंग उन लोगों पर चढ़ चुका है जो समाज में कानून को संभालते हैं। इसलिये यही समझाने की कोशिश में वो बोली, ''शैलेष परेशान मत होओ। ऐसा करो यहीं मामला ख़त्म करो। यहाँ कोई नहीं सुनेगा हमारी। हम ही भूल जाएंगे सभी कुछ।'' प्रगति की बात पर शैलेष उठा और इन्स्पैक्टर को मामला ख़त्म करने की अपनी इच्छा बताई। इन्स्पैक्टर ने दो हज़ार रुपये की माँग की और शैलेष को साइन करने के लिये कहा, शैलेष ने साथ में यह भी लिख डाला ''नो होप आफ एनी एक्शन।'' और लौट आया प्रगति के पास। इन्स्पैक्टर को यह लाइन समझ आई या नहीं, उसका ज़मीर जागा या नहीं, पता नहीं। शैलेष ने अपनी गाड़ी निकाली और धीरे धीरे फिर से दिल्ली की सड़कों पर चलाने का कान्फिडेंस लाने लगा।
2 comments:
सचमुच यथार्थ का चित्रण किया है आपने । बधाई ।
अपने क़ानून और सरकारी तौर तरीके तकनीक के साथ साथ सुधरे नहीं् है। पर उम्मीद पर तो दुनिया कायम है।
आलोक
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