Friday, May 13, 2011

मेरी शाम


पत्तों पर खुरदरी
शाम जब गिरती है...
मैं चुपचाप
नदी किनारे पड़ी
रेत समेट लेती हूँ।
बौखलाई हुई
रात में
औंधे से आकाश में
उस खुशबू को
बिखेर देती हूँ।

11 comments:

मीनाक्षी said...

कुछ यूँ ही क्या सोचती हो जो ऐसा रच देती हो...महक यहाँ तक आती है ..

मनोज अबोध said...

बहुत सुंदर चिंतन है । दरअस्‍ल, कविता यही तो है । बधाई

arbuda said...

शुक्रिया मीनाक्षी और मनोज जी। प्रतिक्रिया पढ़ कर अच्छा लगा।

M VERMA said...

बहुत खूबसूरत भाव

अरुण कुमार निगम (mitanigoth2.blogspot.com) said...

चंद पंक्तियों में ही भावों की गहराइयाँ समेत कर उत्कृष्ट रचना की है.बधाई.

Sunil Kumar said...

खुबसूरत अहसास ,और उनको अल्फाजों में वयां करना , बहुत सुंदर , बधाई | आपके ब्लाग पर पहली हाज़िरी है शायद ?

संजय भास्‍कर said...

ला-जवाब" जबर्दस्त!!

संजय भास्‍कर said...

वाह पहली बार पढ़ा आपको बहुत अच्छा लगा.
आप बहुत अच्छा लिखती हैं और गहरा भी.
बधाई.

डॉ .अनुराग said...

दिलचस्प....

Jyoti Mishra said...

beautifully crafted !!

arbuda said...

स्वागत है आप सभी का। धन्यवाद।

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