Thursday, June 02, 2011

उलझे रास्ते, सुलझी ज़िंदगी



एक गुफ्तगू सी चल रही थी। खामोश, भागती धड़कन की। उसे पता नहीं चल रहा था कि ये किसके सीने की धड़कन है।
एक खामोश सा लम्हा था। अन्जान, बिल्कुल अनछुआ सा। कुछ कहता नहीं...और कुछ समझता भी नहीं। वक्त के भी दायरे में जकड़ा हुआ।
लम्हा है तो लम्हे की सीमा भी तो होगी ही ना। जीएगा तब ही तो बीतेगा ..पर जीएगा कैसे...
कुछ कश्मकश होने लगी थी।
रेल की पटरियों सी भागती जिंदगी, सुलझी हुई थी। कहीं अटकने की गुन्जाईश कहाँ रही थी। खुद के फैसलों पर जी लेने की एक ज़िद्द ही तो उसे यहाँ तक ले आई थी। फैसला कर लेना एक बात होती है और फैसलों पर जी पाना अलग। पर फिर भी वो अटूट थी। रात का घुप्प अंधेरा या दिन का चमक उजाला, सब एक समान होने लगा था। अब ज़िंदगी बाहर नहीं भीतर भागने को तैयार हो रही थी। उस तैयारी में वह चलती, कभी ठिठकती और कभी गुनगुनाती हुई अपने से ही अपने को करीब लाने की जद्दोजहद करती। वो पाक़ थी। पाक़ तो इरादे होते हैं, हाँ...वो पाक़ ही थी। इसीलिए गुमसुम होते हुए भी वो ज़िंदा थी, अटूट ज़िंदा। उसकी यही बात तो काबिलेतारीफ़ थी।
लम्हा बीत जाएगा, वक्त ग़ुज़र जाएगा। गुज़रे वक्त के निशान कमसकम उसके ज़हन से तो हल्के हो ही जाएँगे। उसके इस यक़ीन के बाबत या सुलझे हुए ख़यालात के बाबत कह लो...वो इससे उबर आएगी। ज़िदंगी बेसबब किसी मोड़ पर आकर रूकती हुई सी जान पड़ती है कि उसे आगे चलने को कह पाना कभी-कभी मुश्किल हो जाता है। पर वही ना...लम्हा बीत जाएगा, अपनी सीमा के दायरे को तोड़ कर लाँघ ही जाएगा। और एक नन्हा सा ख़याल ही सही या एक पक्का फैसला ही सही, दायरे के बाहर मिले लम्हे में उसे ज़िदंगी से रूबरू करा जाएगा।

9 comments:

मीनाक्षी said...

ज़िन्दगी का फलसफ़ा इतनी गहराई से कह दिया कि बार बार पढ़ना और गुढ़ना पड़ेगा...क्या पता इसी
कशमकश पर बात करने के लिए मिले और तारों की छाया से कब सूरज आ जाए...खबर ही न हो...

arbuda said...

क्या पता...
...कब ज़िंदगी का आलम रंगीन हो जाए। पर हम मिलें तो सही। ः)

daanish said...

कुछ ऐसा है
जो कहता है कि
रचना बार - बार पढ़ी जाए ...
वाह !!

arbuda said...

दानिश जी,
शब्दों में कुछ बात ऐसी होती है, ...या पढ़ने वाले की नज़र में।
आपने तारीफ़ की, अच्छा लगा। शुक्रिया। आपकी ग़जलें पढ़ीं, बहुत पसंद आईँ।

Jyoti Mishra said...

lovely ...
awesome creation.

Sunil Kumar said...

ज़िंदगी एक लम्हों की माला है कौन सा मोती चमक दे यह पहले से नियत नहीं होता संवेदनशील रचना बधाई

arbuda said...

ज्योति, धन्यवाद।
सुनील जी, आपने बिल्कुल सही कहा। कौनसा मोती चमक दे यह नियत नहीं होता, बहुत खूब।

मनोज अबोध said...

आपका ब्‍लाग अच्‍छा लगा । बधाई

Anonymous said...

http://uttarapath.wordpress.com/2011/06/25/%E0%A4%B8%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%AF-%E0%A4%AA%E0%A4%A5/

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