Tuesday, April 27, 2010

"द ग्रेट पोइट्री रीडिंग डे" या " मेरी वापिसी"

सुबह रेडियो पर सुना कि आज "द ग्रेट पोइट्री रीडिंग डे" है। और मेरे लिए वापिसी का एक अच्छा मुहुर्त।
बहुत दिनों से सोच रही थी कि ब्लागजगत पर लिखने के अभ्यास में एक अंतराल आ रहा है। अंतराल की परिभाषाएँ हर एक के लिए अलग-अलग होती हैं पर निश्चित रूप से एक साल का अंतराल लंबा होता है। इस बीच बहुत कुछ पढ़ा, कुछ और जगह लिखा भी...पर स्लीपींग ब्लागर की श्रेणी में आने के बाद यहाँ से एक अच्छी स्लीप (ब्रेक) की ज़रूरत को मैंने नज़रअंदाज नहीं किया। वैसे ब्रेक के बाद तरोताज़ा होकर लौटने का आनन्द ही अलग है। लौटना कब और कैसे होगा, दिल इसी असमंजस में था पर देखिये ना! कभी-कभी संयोग भी कैसे बन जाता है।
आज "द ग्रेट पोइट्री रीडिंग डे" पर उन सभी कवियों को बार-बार याद कर रही हूँ जिनकी कविताएँ बचपन से पढ़ी हैं, कुछ तो गहरी दिल में उतर गई हैं। हरिवंशराय बच्चन और मैथिलीशरण गुप्त की कविताएँ पढ़ कर उनके प्रति एक सम्मान और प्रेम का रिश्ता दिल में कायम है। मैथिली जी की कविता "दोनों ओर प्रेम पलता है" उस समय मुझे काफी छू गई जब पहली बार पढ़ी थी इस कविता में उन्होनें लक्ष्मण के वन में चले जाने के बाद उर्मिला के दिल में उठ रहे विरह भावों को शब्दों में ढाला है­। जब यह कविता पहली बार पढ़ी तब हैरान रह गई थी यह सोच कर कि इस पहलू के बारे में मैथिली जी ने इतनी गहराई से लिख डाला है जिस पहलू पर शायद किसी की नज़र न जाती। हालांकि उस समय मैं छोटी थी पर दिल में आज भी यह कविता उतना ही गहरा अर्थ समझा जाती है।

हरिवंशराय बच्चन की एक कविता "नीड़ का निर्माण फिर फिर" भी उन कविताओं में से एक है जो मेरी डायरी में नोट की हुई है, ऐसी बहुत सी कविताएँ हैं पर चाहती हूँ कि आज के दिन आपके साथ इस कविता को बाँटू। उम्मीद है कि निर्माण की बात कहती इस कविता के बाद मुझे सहर्ष वापिसी मिल जाएगी...

नीड़ का निर्माण फिर फिर, नेह का आह्वान फिर फिर

यह उठी आंधी की नभ में छा गया सहसा अँधेरा
धुलिधुसर बादलों ने धरती को इस भाँती घेरा
रात सा दिन हो गया फिर रात आई और काली
लग रहा था अब न होगा इस निशा का फिर सवेरा
रात के उत्पात-भय से भीत जन जन भीत कण कण
किन्तु प्राची से उषा की मोहिनी मुस्कान फिर फिर
नीड़ का निर्माण फिर फिर .....

क्रुद्ध नभ के वज्रदंतो में उषा है मुस्कुराती
घोर-गर्जनमय गगन ने कंठ में खग-पंक्ति गाती
एक चिडिया चोंच में तिनका लिए जो जा रही हैं
वह सहज में ही पवन उनचास को नीचा दिखाती
नाश के भय से कभी दबता नहीं निर्माण का सुख
प्रलय की निस्तब्धता में सृष्टि का नवगान फिर फिर
नीड़ का निर्माण फिर फिर....

कवि - हरिवंशराय बच्चन

8 comments:

डॉ .अनुराग said...

चलिए इस बहाने वापसी तो हुई.....


वैसे मुझे बच्चन की एक कविता पसंद है .रात आधी खीच कर मेरी हथेली एक अंगुली से लिखा था ..प्यार तुमने

संजय भास्‍कर said...

DHAMAKEDAR VAPSI

WELCOME BACK.............

कुश said...

दिलचस्प वापसी है..

Amitraghat said...

बहुत अच्छी पोस्ट..."

मीनाक्षी said...

vapisi mubarak ho!

दिलीप said...

bachchan ji ko naman...aapka swagat hai...

http://dilkikalam-dileep.blogspot.com/

Anonymous said...

"नीड़ का निर्माण फिर फिर" पढवाने के लिए आभार

आशुतोष नारायण त्रिपाठी said...

Kafi achchha lga....
Wellcome back.

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