Sunday, December 09, 2007

जीवन चक्र


धूप छाँव का आना जाना
भोर साँझ का खेल दिखाना
जीवन चक्र पर फिसले जाना
कहाँ हो अपना ठौर ठिकाना.

समय से हर पल ‘रेस’ लगाना
दिन भर तन को खूब तपाना
साँझ ढले पर पानी दाना
चल रे माझी घर है जाना.

10 comments:

अमिताभ मीत said...

मस्त

समयचक्र said...

बहुत बढ़िया कविता लिखी है बधाई धूप छाँव क़ी तरह तो जीवन का चक्र चलता है

बालकिशन said...

सुंदर दर्शन और अच्छी कविता का बेजोड़ मिश्रण.
बधाई.

Anonymous said...

Bahut sundar.

Divine India said...

वाह… कोई इतनी सरलता से नित्य कार्य को पूरी तरह से व्यक्त कर सकता है…???
बहुत उम्दा रचना।

सचिन श्रीवास्तव said...

अद्भुतम. क्या बात है मोहतरमा क्या बात है?

रवीन्द्र प्रभात said...

आपके शब्दों का लालित्य आपकी कविता की पंक्तियों में परिलक्षित हो रहा है, बधाईयाँ !

Anonymous said...

bahut badiya rachna

Batangad said...

अच्छा लिखा है

singh said...

सराहनीय.......बधाई
विक्रम

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