धूप छाँव का आना जाना
भोर साँझ का खेल दिखाना
जीवन चक्र पर फिसले जाना
कहाँ हो अपना ठौर ठिकाना.
समय से हर पल ‘रेस’ लगाना
दिन भर तन को खूब तपाना
साँझ ढले पर पानी दाना
चल रे माझी घर है जाना.
भोर साँझ का खेल दिखाना
जीवन चक्र पर फिसले जाना
कहाँ हो अपना ठौर ठिकाना.
समय से हर पल ‘रेस’ लगाना
दिन भर तन को खूब तपाना
साँझ ढले पर पानी दाना
चल रे माझी घर है जाना.
10 comments:
मस्त
बहुत बढ़िया कविता लिखी है बधाई धूप छाँव क़ी तरह तो जीवन का चक्र चलता है
सुंदर दर्शन और अच्छी कविता का बेजोड़ मिश्रण.
बधाई.
Bahut sundar.
वाह… कोई इतनी सरलता से नित्य कार्य को पूरी तरह से व्यक्त कर सकता है…???
बहुत उम्दा रचना।
अद्भुतम. क्या बात है मोहतरमा क्या बात है?
आपके शब्दों का लालित्य आपकी कविता की पंक्तियों में परिलक्षित हो रहा है, बधाईयाँ !
bahut badiya rachna
अच्छा लिखा है
सराहनीय.......बधाई
विक्रम
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