Tuesday, October 23, 2007
लम्हे कुछ हल्के फुल्के
हम फुरसत के पल ढूँढते रहते हैं, कभी अचानक से हल्के फुल्के लम्हे टपक कर दामन में आ गिरते हैं कि संभाल लिये तो अपने, नहीं तो इंतज़ार अगले मौके का।
पिछले कुछ महीने बहुत व्यस्त बीते। काम भी जैसे इंतज़ार में रहते हैं जब थोड़ा फुरसत का सोचो तभी झांकने लगते हैं...और फिर ये बात भी सही है कि काम ख़त्म करके ही फुरसत का मज़ा लिया जा सकता है। वैसे मैंने अनुभव किया है कि हम काम छोड़ कर भले ही बैठ जायेंगे पर काम कभी हमें नहीं छोड़ते। खैर, आज सुबह पतिदेव के आफिस चले जाने के बाद घर गृहस्थी के बहुत से काम हमेशा की तरह मेरा इंतज़ार कर रहे थे, काम कहाँ से शुरू करूँ अभी इसी उहापोह में थी कि फोन बज उठा। मेरी प्रिय सहेली मीनाक्षी लाइन पर थी। फोन उठाते ही फटाक से बोली क्या कर रही हो, ''बस चेंज करो और बाहर आ जाओ, मैं गाड़ी में तुम्हारा इंतज़ार कर रही हूँ।'' फिर आवाज़ की स्पीड धीमी कर बोली, ''अरे बाबा, घबराओ नहीं, काफी पीने चलते हैं बीच पर।'' मेरा मन... मन तो मन ही है... चंचल है। अब और क्या उपमा दूँ इतना बता सकती हूँ कि मीनाक्षी ने दो मिनट का समय दिया था पर मैं डेढ़ मिनट में ही फुर्ती से तैयार होकर गाड़ी में विराज गई। अचानक आज फुरसत का लम्हा मेरे दामन में गिर रहा था उसे संभालना जो था। शापिंग के लिये तो हम अक्सर निकल ही जाते हैं पर तफरीह के लिये कभी मौका हाथ नहीं लगा था। इसलिये उत्साह हम दोनों में ही था। एफ एम पर गाने सुनते सुनते बाहर का ट्राफिक को एन्जाय करते हुए हम बीच पार्क पहुँच गये। समुद्र की शांत लहरें, सूरज की सुनहरी किरणें और पार्क की हरियाली। सभी सुरम्य लग रहे थे। हम अचानक से ही निकल आए थे वरना साथ में बिस्किट या हल्का सामान ही रख लेते पर कोई बात नहीं, वहीं केफेटेरिया से काफी और केक लेकर हम बेंच पर बैठ गए। एन्जाय करने के लिये ढेर सी प्लानिंग होती है पर बिना प्लानिंग के एन्जाय करने का स्वाद बड़ा मज़ेदार होता है। बच्चों के अन्दर ही बचपना नहीं होता महसूस करें तो हमारे अन्दर बचपना हमेशा ज़िंदा रहता है। उसे जी लेना आनन्द देता है। फुरसत के यही कुछ अनप्लांड पल चार्ज करने के लिये अच्छे होते हैं।
Labels:
कुछ यूँ ही
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
10 comments:
हा हा ! आवाज़ की स्पीड ही तो धीमी नहीं होती. यह गतिशीलता तो अंतिम साँसों तक रहेगी. वास्तव मे उसके बाद भी शायद कुछ समय के लिए...
सागर किनारे फुर्सत से बैठे ...बस इसी आनन्द की अनुभुति सत्य है...
ऐसे पल सुचारु जीवन के लिये अवश्य निकालना चाहिये.
आजकल बहुत कम लिखा जा रहा है.
ऐसे पल है तो हम सब के पास पर उसका मजा नही ले पाते है। चलिये आपकी और समीर जी की बात का ध्यान रखेंगे।
ब्यावसायिक भगमदौड भरी जिन्दगी में हम अक्सर लोगों को कहते हैं 'पैसा और समय' के अतिरिक्त अन्य कुछ मांग लो हम देने के लिए तैयार हैं, आपका लेख हमें अतिरिक्त समय निकालने को बाध्य कर रहा है, धन्यवाद, सोते से जगाने के लिए ।
'आरंभ' छत्तीसगढ का स्पंदन
ऐसे हल्के फ़ुल्के लम्हे ही तो हमे खुद अपने होने का एहसास दिला जाते हैं तो फ़िर चुराते रहिए बार बार ऐसे लम्हे!!
शुभकामनाएं
हाँ। दशहरे के सप्ताहांत दिल्ली जाना था, पर नहीं गया। घर पर ही रहा। बहुत अच्छा फैसला था।
वाकई कुछ पल बहुत मज़ेदार होते हैं
सही कहा आपने, बचपन केवल बच्चे में नहीं होता हम सब में होता है, हम फुरसत के पल का इन्तेज़ार करते रहते है पर वोह पल कभी नहीं आते, उन्हें अपनी दिनचर्या में से खुद ही चुराना पड़ता है, आपका लेख पढ़ कर बचपन जीने की इच्छा जग गयी...............
sahi kaha apne didi.. padkr fir se bachpan main laut jane ka dil kiya
मेरे हल्के फुल्के पलों का आनन्द लेकर मुझे प्रोत्साहन देने के लिये आप सभी का आभार।
Post a Comment