छिपकली ओ छिपकली, पता नहीं क्यों रख दिया गया है इसका नाम छिपकली। छिप कर खिलने वाली कली होगी शायद ये। देखा तो नहीं छिप कर रहते हुए, छिप कर कब रहती है ये। दीवारों पर चिपकी हुई दिन रात बस सभी को डराने का ठेका भर ले रखा हो जैसे इसने। दादी नानी से सुना था कि बड़ा ही डरपोक किस्म का प्राणी है ये। वैसे मुझे तो बेशर्म, बेहया किस्म की प्रजाती लगती है। कान लगा कर सबकी बातें सुनती है, कभी-कभी कितना भी भगाने की कोशिश करो पर हिलती भी नहीं तो समझो कि इसके ढीठ किस्म के होने का गुण बढ़ने लगा है। जिसके घर में रहती है उसका भी कोई इज्जत मान नहीं रखती।
कुछ लोग तो जैसे इम्यून से हो जाते हैं छिपकली से, पर कुछ मेरे जैसे लोग भी होते हैं जैसे जिन्हें न जाने क्यों छिपकली फोबिया जैसी लाइलाज बीमारी से ग्रस्त होना पड़ता है। घर में कभी न छिप कर खिलने वाली इस कली के दर्शन हो जाएँ तो सभी सदस्यों को एक भूकंप जैसी स्थिति का सामना भी करना पड़ सकता है। छिपकली देखते ही जैसे मेरे घर मे तुरंत 'आपरेशन छिपकली' की मुहिम छेड़ दी जाती है वैसी संभावनाएँ भी आ सकतीं हैं। फिर दिन, काल, परिस्थितियाँ नहीं देखी जातीं, जब दुश्मन दिख जाता है उसे खदेड़ने के लिए सभी को तत्पर होना ही पड़ता है, क्या करें। मेरे घर में काम करने वाली बाई की ये क्वालिफिकेशन भी देखी जाती है। गर्मी के दिन हैं, बारिश है और माशाअल्लाह इस पर उमस जम कर, ऐसे मौसम छिपकली के पसंदीदा मौसम होते हैं। इसलिए आजकल तो घर के किसी भी कमरे में पूरी तरह घुसने से पहले जाँच पड़ताल करनी पड़ती है कि दुश्मन कहीं किसी पहाड़ के ऊपर मतलब दीवार के ऊपर चढ़ कर तो नहीं बैठा है। कई बार तो ऐसा भी तजुर्बा हुआ है जब एक साथ छिपकली को उसके दल-बल के साथ घर से विदा किया हो। भगवान ऐसी नौबत ना लाए कभी, जान सूख जाती है एक छिपकली को सपरिवार देख कर। छोटी छिपकली पर तो फिर भी 'हिट' जैसे स्प्रे असरदार होते है पर जैसे जैसे इनका आकार बड़ा होता जाता है, ये सब हथियार बेअसरदार होने लगते हैं। झाड़ू, वाईपर, डंडे, तरह-तरह की आवाज़ें और छिपकली निकालने की कोशिश करने वाले का एक्सपीरियंस सभी का एक साथ प्रयोग ही फलदायक हो सकता है। उसकी चाल-ढाल पर बारीकी से गौर किया जाता है। एक प्लानिंग के साथ सारे सिपाही डट कर तैनात होते हैं। भागते भागते अपनी पूँछ को भी कई बार ये छिपकली 'भागते चोर की लंगोट' वाली तर्ज पर छोड़ जाती है। छिपकली खदेड़ने का काम वाकई में एक बहुत गंभीरता से करने वाला काम है, सफलता हाथ लगी तो मन में आई खुशी को वही महसूस कर सकता है जो इस मुहिम का हिस्सा बनता है। वरना ऐसे लोग भी होते हैं तो आपरेशन छिपकली के समय तो छिप जाते हैं और फिर गाहेबेगाहे हमारी मज़ाक भी बनाते हैं। "अरे, इतना डर किस काम का, छिपकली ही तो है। तुमसे साइज़ में देखो, कितनी छोटी है। अगर ऐसे चीखोगे तो बच्चे भी डरने लगेंगे, वगैरह वगैरह।" पर क्या करूँ, ये ख़ौफ भी ऐसा ख़ौफ है कि सारे ईलाज इस ख़ौफ से ख़ौफ खाते हैं।साँप, मगरमच्छ, गिरगिट , छिपकली वगैरह अपने रूप रंग से कितना ख़ौफ पैदा कर देते हैं। और हम भी तो इस दुनिया जहान के रेंगने वाले जीवों के ख़ौफ में जी रहे हैं।
पहले सुनते थे कि मोर के पंख रखने से छिपकली घर में नहीं आती पर अब लगता है कि इनके लिए भी ज़माना बदल गया है। पुराने नुस्खे अब अपना काम पूरी शिद्दत के साथ नहीं करते। खैर, मैं तो कई दफ़ा सोचती हूँ कि भगवान ने ये रेप्टाइल बनाए ही क्यों हैं। डराने और अपना ज़हर फैलाने के अलावा इनको और काम ही क्या है। अब देखो ना, साँप का ज़हर साँप के ज़हर से ही दूर होता है। ये भी कोई बात हुई भला। छिपकली के ज़हर और उसके तोड़ का तो कुछ पता भी नहीं। हर जगह से तो नहीं पर जहाँ मुमकिन है वहाँ तो इनसे बचने को हर संभव प्रयास करने चाहिए। वरना हम जैसे प्राणियों की रातों की नींद छत पर रेंगती छिपकली को देख कर गायब हो जाए और कोई इस डर को इन्सोम्निया का नाम दे तो इस बहाने पर शक मत करना।