Sunday, July 24, 2011

आपरेशन छिपकली

छिपकली छिपकली, पता नहीं क्यों रख दिया गया है इसका नाम छिपकली। छिप कर खिलने वाली कली होगी शायद ये। देखा तो नहीं छिप कर रहते हुए, छिप कर कब रहती है ये। दीवारों पर चिपकी हुई दिन रात बस सभी को डराने का ठेका भर ले रखा हो जैसे इसने। दादी नानी से सुना था कि बड़ा ही डरपोक किस्म का प्राणी है ये। वैसे मुझे तो बेशर्म, बेहया किस्म की प्रजाती लगती है। कान लगा कर सबकी बातें सुनती है, कभी-कभी कितना भी भगाने की कोशिश करो पर हिलती भी नहीं तो समझो कि इसके ढीठ किस्म के होने का गुण बढ़ने लगा है। जिसके घर में रहती है उसका भी कोई इज्जत मान नहीं रखती।

कुछ लोग तो जैसे इम्यून से हो जाते हैं छिपकली से, पर कुछ मेरे जैसे लोग भी होते हैं जैसे जिन्हें जाने क्यों छिपकली फोबिया जैसी लाइलाज बीमारी से ग्रस्त होना पड़ता है। घर में कभी छिप कर खिलने वाली इस कली के दर्शन हो जाएँ तो सभी सदस्यों को एक भूकंप जैसी स्थिति का सामना भी करना पड़ सकता है। छिपकली देखते ही जैसे मेरे घर मे तुरंत 'आपरेशन छिपकली' की मुहिम छेड़ दी जाती है वैसी संभावनाएँ भी सकतीं हैं। फिर दिन, काल, परिस्थितियाँ नहीं देखी जातीं, जब दुश्मन दिख जाता है उसे खदेड़ने के लिए सभी को तत्पर होना ही पड़ता है, क्या करें। मेरे घर में काम करने वाली बाई की ये क्वालिफिकेशन भी देखी जाती है। गर्मी के दिन हैं, बारिश है और माशाअल्लाह इस पर उमस जम कर, ऐसे मौसम छिपकली के पसंदीदा मौसम होते हैं। इसलिए आजकल तो घर के किसी भी कमरे में पूरी तरह घुसने से पहले जाँच पड़ताल करनी पड़ती है कि दुश्मन कहीं किसी पहाड़ के ऊपर मतलब दीवार के ऊपर चढ़ कर तो नहीं बैठा है। कई बार तो ऐसा भी तजुर्बा हुआ है जब एक साथ छिपकली को उसके दल-बल के साथ घर से विदा किया हो। भगवान ऐसी नौबत ना लाए कभी, जान सूख जाती है एक छिपकली को सपरिवार देख कर। छोटी छिपकली पर तो फिर भी 'हिट' जैसे स्प्रे असरदार होते है पर जैसे जैसे इनका आकार बड़ा होता जाता है, ये सब हथियार बेअसरदार होने लगते हैं। झाड़ू, वाईपर, डंडे, तरह-तरह की आवाज़ें और छिपकली निकालने की कोशिश करने वाले का एक्सपीरियंस सभी का एक साथ प्रयोग ही फलदायक हो सकता है। उसकी चाल-ढाल पर बारीकी से गौर किया जाता है। एक प्लानिंग के साथ सारे सिपाही डट कर तैनात होते हैं। भागते भागते अपनी पूँछ को भी कई बार ये छिपकली 'भागते चोर की लंगोट' वाली तर्ज पर छोड़ जाती है। छिपकली खदेड़ने का काम वाकई में एक बहुत गंभीरता से करने वाला काम है, सफलता हाथ लगी तो मन में आई खुशी को वही महसूस कर सकता है जो इस मुहिम का हिस्सा बनता है। वरना ऐसे लोग भी होते हैं तो आपरेशन छिपकली के समय तो छिप जाते हैं और फिर गाहेबेगाहे हमारी मज़ाक भी बनाते हैं। "अरे, इतना डर किस काम का, छिपकली ही तो है। तुमसे साइज़ में देखो, कितनी छोटी है। अगर ऐसे चीखोगे तो बच्चे भी डरने लगेंगे, वगैरह वगैरह।" पर क्या करूँ, ये ख़ौफ भी ऐसा ख़ौफ है कि सारे ईलाज इस ख़ौफ से ख़ौफ खाते हैं।साँप, मगरमच्छ, गिरगिट , छिपकली वगैरह अपने रूप रंग से कितना ख़ौफ पैदा कर देते हैं। और हम भी तो इस दुनिया जहान के रेंगने वाले जीवों के ख़ौफ में जी रहे हैं।

पहले सुनते थे कि मोर के पंख रखने से छिपकली घर में नहीं आती पर अब लगता है कि इनके लिए भी ज़माना बदल गया है। पुराने नुस्खे अब अपना काम पूरी शिद्दत के साथ नहीं करते। खैर, मैं तो कई दफ़ा सोचती हूँ कि भगवान ने ये रेप्टाइल बनाए ही क्यों हैं। डराने और अपना ज़हर फैलाने के अलावा इनको और काम ही क्या है। अब देखो ना, साँप का ज़हर साँप के ज़हर से ही दूर होता है। ये भी कोई बात हुई भला। छिपकली के ज़हर और उसके तोड़ का तो कुछ पता भी नहीं। हर जगह से तो नहीं पर जहाँ मुमकिन है वहाँ तो इनसे बचने को हर संभव प्रयास करने चाहिए। वरना हम जैसे प्राणियों की रातों की नींद छत पर रेंगती छिपकली को देख कर गायब हो जाए और कोई इस डर को इन्सोम्निया का नाम दे तो इस बहाने पर शक मत करना।

Monday, July 18, 2011

हाईकु

(१)

प्रीत संवारे
पेड़ के कोटर में
निर्मित नीड़।


(२)
नदिया बहे
बूंद बूंद पानी ले
अस्तित्त्व थामे।


(३)
जीवन सारा
खिले चेहरों पर
खेल तमाशा।


(४)
दादी की गोद
ममता भरा स्पर्श
प्यारा बचपन।

(५)
पग रखना
संभल संभल के
जीवन पथ।


(६)
बोझ उठातीं
अनवरत चले
सांसे निश्छल।

Thursday, June 02, 2011

उलझे रास्ते, सुलझी ज़िंदगी



एक गुफ्तगू सी चल रही थी। खामोश, भागती धड़कन की। उसे पता नहीं चल रहा था कि ये किसके सीने की धड़कन है।
एक खामोश सा लम्हा था। अन्जान, बिल्कुल अनछुआ सा। कुछ कहता नहीं...और कुछ समझता भी नहीं। वक्त के भी दायरे में जकड़ा हुआ।
लम्हा है तो लम्हे की सीमा भी तो होगी ही ना। जीएगा तब ही तो बीतेगा ..पर जीएगा कैसे...
कुछ कश्मकश होने लगी थी।
रेल की पटरियों सी भागती जिंदगी, सुलझी हुई थी। कहीं अटकने की गुन्जाईश कहाँ रही थी। खुद के फैसलों पर जी लेने की एक ज़िद्द ही तो उसे यहाँ तक ले आई थी। फैसला कर लेना एक बात होती है और फैसलों पर जी पाना अलग। पर फिर भी वो अटूट थी। रात का घुप्प अंधेरा या दिन का चमक उजाला, सब एक समान होने लगा था। अब ज़िंदगी बाहर नहीं भीतर भागने को तैयार हो रही थी। उस तैयारी में वह चलती, कभी ठिठकती और कभी गुनगुनाती हुई अपने से ही अपने को करीब लाने की जद्दोजहद करती। वो पाक़ थी। पाक़ तो इरादे होते हैं, हाँ...वो पाक़ ही थी। इसीलिए गुमसुम होते हुए भी वो ज़िंदा थी, अटूट ज़िंदा। उसकी यही बात तो काबिलेतारीफ़ थी।
लम्हा बीत जाएगा, वक्त ग़ुज़र जाएगा। गुज़रे वक्त के निशान कमसकम उसके ज़हन से तो हल्के हो ही जाएँगे। उसके इस यक़ीन के बाबत या सुलझे हुए ख़यालात के बाबत कह लो...वो इससे उबर आएगी। ज़िदंगी बेसबब किसी मोड़ पर आकर रूकती हुई सी जान पड़ती है कि उसे आगे चलने को कह पाना कभी-कभी मुश्किल हो जाता है। पर वही ना...लम्हा बीत जाएगा, अपनी सीमा के दायरे को तोड़ कर लाँघ ही जाएगा। और एक नन्हा सा ख़याल ही सही या एक पक्का फैसला ही सही, दायरे के बाहर मिले लम्हे में उसे ज़िदंगी से रूबरू करा जाएगा।

Friday, May 13, 2011

मेरी शाम


पत्तों पर खुरदरी
शाम जब गिरती है...
मैं चुपचाप
नदी किनारे पड़ी
रेत समेट लेती हूँ।
बौखलाई हुई
रात में
औंधे से आकाश में
उस खुशबू को
बिखेर देती हूँ।

Monday, May 02, 2011

प्रतिमा मेरे प्रिय की









अन्तस में प्रकाश की

किरणें उत्साह की

मदमस्त मुझे कर

ले चलीं

अनन्त सागर में

उज्ज्वल आँगन में

मौन पावन में...

…छोड़ चलीं...

किरणें प्रकाश की

लहरें उत्साह की

प्रतिमा मेरे प्रिय की।



Thursday, January 27, 2011

क्षणिकाएँ


{ अनुभूति में प्रकाशित पाँच क्षणिकाएँ }


(1)
उड़ते- घुमड़ते
गुज़र जाता है वक्त
साल दर साल
दबे पाँव
छोड़ जाता है
उम्र पर
जाने अनजाने
अपने सफर के निशान।


(2)
उफनती लहरें,
सरसराते पत्ते,
उड़ती हुई रेत
और हमारी साँसें
पिरो रखा है
हवा ने इन्हें
एकसाथ।

(3)

बंद मुट्ठी में
क्या बँध सका
हाथ खोला
और देखो तो
आसमान
सिमट कर
बाहों में आगया।

(4)
मौसम और इंसान
नहीं रहते
एक समान
वक्त के साथ
बदलते हैं
दोनों ही।

(5)

दो लोगों के बीच
ज़रूरी नहीं
शब्द और ज़ुबान हो
रिक्त आवाज़ को
बिन कहे बात को
दिल भी अक्सर
सुन लेता है।


Tuesday, October 26, 2010

मृत्युँजय


मन त्यौहारों की उमंग में रमा हुआ है। रामलीला, दशहरा, दीवाली फिर गोवर्धन पूजा। द्वापर और त्रेता युग दोनों का ही संबंध हो जाता है इस माह से। घर में सफाई करते हुए शिवाजी सावंत का लिखा उपन्यास 'मृत्युँजय' हाथ लग गया है। कुछ सालों पहले जब इसे पढ़ना शुरू किया था तब भी एक अलग आकर्षण सा महसूस किया था। पूरा उपन्यास बिना रुकावट के पढ़ डाला था। २३-२४ साल की आयु में अपना पहला उपन्यास इतने गम्भीर पात्र को लेकर लिखने वाले के दिल-दिमाग पर दानवीर कर्ण और महाभारत काल किस नशे जैसा रहा होगा कि उस नशे के चलते उन्होने अपनी नौकरी की भी परवाह नहीं की। नशा ऐसा कि उसका असर आज भी पढ़ने वाले को महसूस हो जाता है। भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा प्रकाशित यह उपन्यास इतना लोकप्रिय हुआ कि चार-पाँच वर्षों में ही इसके चार संस्करण तथा पचास हज़ार प्रतियाँ प्रकाशित हो गईं। जब मैंने खरीदा था तब तक इसके तीस संस्करण प्रकाशित हो चुके थे। कोई दैवीय शक्ति जैसे इस उपन्यास को उनसे लिखवाती रही। और शिवाजी के शब्दों में 'यह उपन्यास मेरा नहीं अब पाठकों का हो चुका है।'

आज दिल चाह रहा है कि उन तरंगों को एक बार फिर महसूस करूँ। ये भाव इतनी तीव्रता से उठे कि यहाँ शब्द बन गए। आपने अगर नहीं पढ़ा है तो एक बार ज़रूर पढ़ियेगा।
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